Friday, September 21, 2012

यूँ ही बेसबब न फिरा करो...

यूँ ही बेसबब न फिरा करो, कोई शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल के सच्ची किताब है, उसे चुपके चुपके पढ़ा करो

कोई हाथ भी न मिलायेगा, जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिजाज़ का शहर है ज़रा फासले से मिला करो

अभी राह में कई मोड़ हैं , कोई आएगा कोई जाएगा
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो

मुझे इश्तेहार से लगती हैं ये मुहबतों की कहानियां
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो 

कभी हुस्न-ए-पर्दानशीं भी हो ज़रा आशिकाना लिबास में
जो मैं बन सवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भे चला करो

ये खिजां की ज़र्द सी शाल  में , जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आंसुओं से हरा करो

 नहीं बेहिजाब वो चाँद सा की नज़र का कोई असर न हो
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो

- 'बशीर बद्र'

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